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गुणवत्ता Archives - Translators of India https://translatorsofindia.com/tag/गुणवत्ता Making Translation Visible Fri, 05 Jan 2024 09:11:16 +0000 en-US hourly 1 https://wordpress.org/?v=6.7.1 https://translatorsofindia.com/wp-content/uploads/2022/02/cropped-toi-favicon-1-32x32.png गुणवत्ता Archives - Translators of India https://translatorsofindia.com/tag/गुणवत्ता 32 32 अनुवाद की चुनौतियां https://translatorsofindia.com/translationchallenges https://translatorsofindia.com/translationchallenges#respond Fri, 05 Jan 2024 09:09:42 +0000 https://translatorsofindia.com/?p=523 स्टोरीवीवर की कहानियों का अनुवाद हमेशा चुनौती साथ लाता है : हमें ठीक-ठीक मालूम नहीं होता कि कहानी का पाठक दुनिया के किस हिस्से में है, उसकी आयु या शैक्षणिक पृष्ठभूमि क्या है, वह प्रस्तुत पाठ को किस उद्देश्य से

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स्टोरीवीवर की कहानियों का अनुवाद हमेशा चुनौती साथ लाता है : हमें ठीक-ठीक मालूम नहीं होता कि कहानी का पाठक दुनिया के किस हिस्से में है, उसकी आयु या शैक्षणिक पृष्ठभूमि क्या है, वह प्रस्तुत पाठ को किस उद्देश्य से पढ़ रहा है… अनेक प्रश्न बार-बार कलम रोकते हैं। क्या हमारे शब्द उसके लिए भी वही अर्थ रखते हैं, क्या हमारा किया अर्थान्वय उसके लिए भी कारगर रहेगा? और फिर लेखक के मूल कथ्य और मंतव्य को पकड़ने की चुनौती तो हमेशा ही अनुवादकों के सामने रहती है – अरे मन सम्हल-सम्हल पग धरिये!

एक मोटा-मोटा सूत्र राह दिखाता है : अनूदित सामग्री पढ़ने वाले पाठक के लिए वही मूल रचना है।

लेकिन नामों और रिश्तों का जटिल संसार कभी-कभी बहुत कड़ी परीक्षा लेता है। एक कहानी में दक्षिण भारतीय मुख्य चरित्र, जो एक लड़का था, का नाम सत्या था। हिंदी मे यह लड़कियों का नाम होता है; तो नामों के मूल रूप बनाए रखने की ताकीद के बावजूद मैंने उसका नाम सत्य कर दिया क्योंकि मुझे हिंदी के पाठकों को भ्रम में न डालना ज़्यादा महत्वपूर्ण लगा। हाल ही में गोआनी मूल के ईसाई लेखक की लिखी सुंदर और बहुत रोचक कविता-कहानी में शवयात्रा के समय बजने वाले बैंड (भारत में कम ही जगह इस तरह का चलन है) का उल्लेख आया। इसे हिंदी के बाल-पाठक को समझाने के लिए हमें लंबी-चौड़ी टिप्पणी देनी पड़ती जो पढ़ने का मज़ा ही किरकिरा कर देती। तो हल निकाला शवयात्रा का उल्लेख गोल करके; पाठ की रोचकता बरकरार रही, उसकी गुणवत्ता हल्की नहीं हुई।

लेकिन कई बार तकनीकी शब्दावली की यांत्रिकता आड़े आती है : प्रचलित शब्द गोल/गोला से पता नहीं चलता कि वह किसी पिंड का संकेत दे रहा है या द्विआयामी आकृति का : गेंद भी गोल है, और नंगी आंख से धरती से दिखता चांद भी! अब अगर हम सायकिल के पिंडाकार पहियों की बात कहना चाहें तो कैसे कहेंगे? एक और बड़ी समस्या पशु-पक्षियों-कीट-पतंगों-वनस्पतियों के नाम हिंदी में बताते हुए आती है। इस संदर्भ में ‘ताल का जादू’ के हिंदी अनुवाद की याद आती है। इसमें उल्लिखित कई पक्षियों और कीटों के नाम मुझे नहीं पता थे। हमारी प्रचलित शब्दावली में, कई कारणों से इनमें से बहुत के नाम उपलब्ध नहीं हैं; किसी वैज्ञानिक शब्दावली में मिल भी जाएं तो शेर-बाघ-तेंदुए के बीच अंतर न जानने वाले हमारे पाठकों के लिए वे इतने अपरिचित होते हैं कि अंग्रेज़ी नाम देना भी ठीक ही लगता है – जैगुआर कहने पर यह संभावना बनी रहेगी कि कोई जानकार उसे इसका अर्थ समझा सकता है (वैसे जैगुआर अमेरिका में पाए जाने वाले तेंदुए हैं)। बेसिल का अर्थ आमतौर पर तुलसी लगाया जाता है लेकिन तुलसियां भी कम से कम छह तरह की होती हैं। बेसिल में यह तथ्य निहित है, तुलसी में नहीं।

हर नया पाठ अनुवादक के लिए नई चुनौती लाता है। हर नया अनुवाद भाषा के क्षितिज को कुछ आगे सरकाता है।

स्टोरीवीवर से साभार

मधु बी. जोशी कई दशकों से अनुवादक, कवयित्री, कहानीकार और स्तंभकार के रूप में अंग्रेज़ी और हिंदी के साहित्यिक जगत को समृद्ध करती आई हैं। वे तकनीकी अनुवाद को अपनी आय और साहित्यिक अनुवाद को रचनात्मक संतुष्टि का ज़रिया मानती हैं। उनके द्वारा अनूदित कृतियों में ‘बधिया स्त्री’ और ‘यह जीवन खेल में’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आप उनसे madhubalajoshi@yahoo.co.in पर संपर्क कर सकते हैं।

Over the last several decades, Madhu B. Joshi has enriched the Hindi and English literary worlds through her contributions as a translator, poet, story writer, and columnist. She views technical translation as a source of income that allows her to do literary translations of her choice. “Badhiya Stree” and “Yeh Jeevan Khel Mein” are among her most notable translations. She can be reached at madhubalajoshi@yahoo.co.in.

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अनुवाद की कुछ व्यावहारिक समस्याएं https://translatorsofindia.com/practical-challenges-for-translators https://translatorsofindia.com/practical-challenges-for-translators#comments Sat, 19 Aug 2023 12:39:55 +0000 https://translatorsofindia.com/?p=441 आम तौर पर माना जाता है कि एक भाषा की रचना को उसके मूल भाव और पाठ से विचलित हुए बिना, दूसरी भाषा के पाठकों के लिए सुगम, सरल भाषा में प्रस्तुत करना ही अनुवाद है। लेकिन अनुवाद क्या सचमुच

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आम तौर पर माना जाता है कि एक भाषा की रचना को उसके मूल भाव और पाठ से विचलित हुए बिना, दूसरी भाषा के पाठकों के लिए सुगम, सरल भाषा में प्रस्तुत करना ही अनुवाद है। लेकिन अनुवाद क्या सचमुच ही इतनी सरल प्रक्रिया है? अनुवाद को सरल क्रिया मानना ही शायद उसके दोयम दर्जे की गतिविधि माने जाने का आधार है और शायद इसीलिए अक्सर अनुवादकों को उनके काम का श्रेय (और कभी-कभी उचित मज़दूरी भी) नहीं मिल पाता। हम जानते हैं कि ईसा से ढाई हज़ार बरस पहले मिस्र में प्रमुख अनुवादक का पद हुआ करता था, शासक की एक पदवी ‘अनुवादकों का मार्गदर्शक’ थी और अनुवादक एक सम्मानित व्यावसायिक वर्ग माने जाते थे, लेकिन इतना ही सच यह भी है कि हमें उन अनुवादकों के नाम नहीं मालूम जिन्होंने साम्राज्य भर में राजादेशों को समान रूप से समझा जाना संभव बनाने के लिए अनुवाद किए। असल में उनके नाम दर्ज ही नहीं किए गए। ओल्ड टेस्टामेंट के हिब्रू से ग्रीक में अनुवाद करने वाले लोगों के बारे में हम बस यह जानते हैं कि वे यहूदियों के बारह कबीलों के प्रतिनिधि थे, हर कबीले के 6 प्रतिनिधि यानी कुल 72 लोग, लेकिन उनके नामों के विवरण उपलब्ध नहीं हैं। बहरहाल, हम पक्के ढंग से जानते हैं कि ओल्ड टेस्टामेंट का हिब्रू से ग्रीक में अनुवाद करवाने वाला मिस्र का यूनानी शासक टॉलेमी द्वितीय था।

एक दार्शनिक कह चुके हैं कि दो व्यक्ति एक ही किताब को अलग-अलग ढंग से पढ़ते हैं। अक्सर ही अनुवाद के बारे में (और प्रकारांतर से अनुवादक के बारे में) शिकायत रहती है कि उसने मूल रचना के साथ पूरा न्याय नहीं किया। दूसरी ओर, विश्व साहित्य से हमारा परिचय अनुवाद के कारण ही संभव हो पाया है। अनुवाद ने संस्कृतियों और समाजों के बीच संवाद के पुल बनाए हैं। बहुत बार एक संस्कृति के कठिन तत्वों को उनसे बिलकुल अपरिचित संस्कृति से आए पाठकों के लिए बोधगम्य बनाने के लिए अनुवादक, जो दोनों संस्कृतियों/भाषाओं के बीच के उस संधिस्थल के नागरिक होते हैं जिसे ‘नो मैन्स लैंड’ कहा जाता है, निकटतम साम्य रचने वाले तत्वों का उपयोग कर लेते हैं जो पूरी तरह वही नहीं हो सकते जो मूल रचना में थे। इसे मूल पाठ से विचलन, और इस तरह अनुवाद कर्म में दोष माना जाता है। लेकिन साहित्य और साहित्यिक पुरस्कारों की दुनिया बहुत हद तक अनुवाद पर टिकी है। क्या आयरिश कवि डब्ल्यू. बी. येट्स के अनुवाद (रोचक है कि इस समर्थ कवि को टैगोर के 10 बरस बाद नोबेल पुरस्कार मिला) के बिना टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलने की कल्पना भी की जा सकती थी? रसिकों और अनुवादकों के बीच आज भी येट्स के अनुवाद पर बहस जारी है।

क्या अनुवादक पूरी तरह अकिंचन हो सकता है?

अनुवादक से अपेक्षा रहती है कि अनूदित पाठ में उसकी सत्ता की झलक तक न रहे। यह अपने आप में एक असंभव किस्म की मांग है जो चाहती है कि कोख किराये पर देने वाली स्त्री की तरह अनुवादक भी अपने श्रम के उत्पाद पर अपने अस्तित्व के चिह्न न छोड़े। आदर्श रूप से अनुवादक अपनी मानसिक बुनावट के अनुसार किसी पाठ का अर्थान्वय अपने लिए करने के बाद उसे एक ऐसे अमूर्त, आदर्श और कल्पित पाठक के लिए व्यक्त करते हैं जिसका अस्तित्व असल में है ही नहीं, जिसे अनुवादक ने अपनी सुविधा के लिए गणित के ‘एक्स’ की तरह सिरजा है और प्रमेय/समस्या के हल हो जाने पर जो पूरी तरह त्याज्य होता है। लेकिन इसी अमूर्त पाठक (जो अनूदित पाठ के सार्वजनिक क्षेत्र में उपलब्ध होने पर अनेक ठोस, वास्तविक, सापेक्ष लोगों में बदल जाता है) की ग्रहणशीलता तय करती है कि अनूदित पाठ को कैसे आंका जाएगा। एक बहुत सरल, स्थूल उदाहरण की सहायता से बताएं तो अनुवाद का कर्म मेंहदी लगाने जैसा है (यहां मूल पाठ को अपनी भाषा की माटी में खड़े पौधे पर लगी मेंहदी की पत्तियां माना गया है जिनके गुणधर्म को दूसरी भाषा/संस्कृति में स्थानांतरित करने का काम अनुवादक का है)। मेंहदी पहले पीसी जाती है जिससे उसका भौतिक गुण बदलता है, फिर उस हथेली को साफ़ किया जाता है जिस पर मेंहदी लगनी है, फिर उस पर मेंहदी लगा दी जाती है। इस पूरी प्रक्रिया में मेंहदी तोड़ने, पीसने और लगाने वाले व्यक्ति ने खुद का विलोपन करने का पूरा प्रयास किया होता है लेकिन क्या यह विलोपन मेंहदी लगवाने वाले के लिए भी काम करता है? मानवीय अनुभव की सीमाओं के बीच अनुवादक के व्यक्तित्व का विलोपन क्या सचमुच संभव है?

क्या अनुवादक को संपादक की भूमिका में आना चाहिए?

कुछ स्थितियों में मूल पाठ में विचारों और अवधारणाओं को राजनीतिक-सामाजिक कारणों से व्यापक प्रसार के लिए अनुकूल नहीं माना जाता। ऐसे में अनुवादक, जो एक ओर मूल लेखक का प्रतिनिधि है और दूसरी ओर अनूदित पाठ की ग्राह्यता सुनिश्चित करने को संकल्पबद्ध है, क्या करे इस प्रश्न का पूरा विस्तार समझने के लिए उस दुभाषिये की कल्पना करें जो अमेरिकी राष्ट्रपति डोनल्ड ट्रम्प और उत्तर कोरियाई तानाशाह किम इल जोंग के बीच बैठा है। अगर वह कुछ त्वरित संपादन न करे तो हमारे संसार को इतिहास बनते देर न लगे। लेकिन तब वह अनुवाद कर्म की संहिता का उल्लंघन कर रहा होगा। प्राचीन और सांस्कृतिक स्तर पर जटिल पाठों (जैसे पंचतंत्र और एलिस इन वंडरलैंड) को बच्चों के लिए अनूदित करते हुए अनुवादकों के सामने अक्सर ही ऐसे निर्णय लेने की स्थिति आती है।

अनुवादक किसका पक्षधर रहे, अपनी आचारसंहिता का या मूल पाठ का या सत्ता का?

आज की राजनीतिक-सामाजिक स्थितियों में अनुवादकर्म बहुत ही जटिल, कठिन हो चुका है। मूल पाठ और अपनी आचारसंहिता के प्रति निष्ठावान बने रहते हुए क्या आतंकवादी घटना के विदेशी आरोपी के दुभाषिये देश-विदेश में मौजूद उसके अज्ञात साथियों का साथ दे रहे होंगे, क्या वे आम जनता के बीच अलगाववादी विचारधारा के प्रसार में सहायक सिद्ध होंगे? अब इसी स्थिति को दूसरे कोण से देखें : मूल पाठ और अपनी आचारसंहिता के प्रति निष्ठावान बने रहते हुए क्या अंतरराष्ट्रीय/विदेशी परिवीक्षकों के लिए देश के असंतुष्ट वर्गों के दुभाषिये देश के हितों (ये हमेशा ही सत्ता द्वारा परिभाषित किए जाते हैं) के विरुद्ध काम कर रहे होंगे? इसी के साथ एक और भी प्रश्न उठता है- क्या अनुवादक/दुभाषिया गोपनीयता को हर स्थिति में बनाए रखे?

कुछ ऐसी ही स्थिति में ओल्ड टेस्टामेंट का ग्रीक में अनुवाद करने वाले यहूदी अनुवादकों ने एक अनूठा उपाय निकाला था : उन्होंने ग्रीक में अनूदित पाठों की ही एक-दूसरे से तुलना करने पर ज़ोर दिया (क्योंकि अनूदित पाठ की हिब्रू मूल पाठ से तुलना वही कर सकते थे) और घोषित किया कि दैवी प्रेरणा के फलस्वरूप अनुवाद एकदम सही हुए हैं।

अनुवादक भाव को प्राथमिकता दे या शैली को?

भावपूर्ण, गीतात्मक पाठों के अनुवादक के सामने अक्सर ही यह दुविधा आती है। हम जानते हैं कि सांस्कृतिक संदर्भों में समानार्थकता प्राप्त कर पाना कभी-कभी असंभव होता है। इसका एक उदाहरण लोकगीतों और लोकगाथाओं का अनुवाद है : भाव पर पकड़ बनती है तो शैली छूट जाती है और शैली पकड़ में आती है तो भाव की सघनता हल्की होती दिखती है।

ये अनुवादकों के सामने खड़े होने वाले कुछ मोटे-मोटे सामान्य प्रश्न हैं, वैसे तो हर पाठ अपनी ही खास चुनौतियां लिए होता है जिनके लिए नई रणनीतियां बनानी होती हैं।

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मधु बी. जोशी कई दशकों से अनुवादक, कवयित्री, कहानीकार और स्तंभकार के रूप में अंग्रेज़ी और हिंदी के साहित्यिक जगत को समृद्ध करती आई हैं। वे तकनीकी अनुवाद को अपनी आय और साहित्यिक अनुवाद को रचनात्मक संतुष्टि का ज़रिया मानती हैं। उनके द्वारा अनूदित कृतियों में ‘बधिया स्त्री’ और ‘यह जीवन खेल में’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आप उनसे madhubalajoshi@yahoo.co.in पर संपर्क कर सकते हैं।

Over the last several decades, Madhu B. Joshi has enriched the Hindi and English literary worlds through her contributions as a translator, poet, story writer, and columnist. She views technical translation as a source of income that allows her to do literary translations of her choice. “Badhiya Stree” and “Yeh Jeevan Khel Mein” are among her most notable translations. She can be reached at madhubalajoshi@yahoo.co.in.

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दुखवा का से कहे अनुवाद https://translatorsofindia.com/challenges-facing-the-translation-profession https://translatorsofindia.com/challenges-facing-the-translation-profession#comments Sun, 16 Apr 2023 16:46:37 +0000 https://translatorsofindia.com/?p=422 वस्‍तु एवं वि‍चार के वि‍नि‍मय हेतु अनुवाद का आवि‍ष्‍कार मानव सभ्‍यता के साथ ही शुरू हुआ और भारत में ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी के डैने फैलने से पहले तक इसकी नैष्‍ठि‍क पवि‍त्रता बरकरार रही। इस दीर्घ यात्रा में यह धर्म-प्रचार, ज्ञान-विस्‍तार

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वस्‍तु एवं वि‍चार के वि‍नि‍मय हेतु अनुवाद का आवि‍ष्‍कार मानव सभ्‍यता के साथ ही शुरू हुआ और भारत में ईस्‍ट इंडिया कम्‍पनी के डैने फैलने से पहले तक इसकी नैष्‍ठि‍क पवि‍त्रता बरकरार रही। इस दीर्घ यात्रा में यह धर्म-प्रचार, ज्ञान-विस्‍तार और शासन-संचालन का भी अभि‍न्‍न अंग बना रहा। आगे चलकर भारतीय ग्रन्‍थों के अनुवाद में अपनाई गई फि‍रंगी कुटि‍लता के कारण अनुवाद-कर्म की धारणा पहली बार शक के दायरे में आई। साम्राज्‍य-वि‍स्‍तार की धारणा से अनुवाद करवाने की उनकी कलुषि‍त नीति‍ को भारत के राष्‍ट्रवादी बौद्धि‍कों ने उन्हीं दि‍नों उजागर कर दि‍या। अनुवाद की वि‍श्‍वसनीयता जैसे वि‍चार सर्वप्रथम उन्‍हीं दि‍नों अस्‍ति‍त्‍व में आए। मगर यह बहुत पुरानी बात है।

नई बात यह है कि भूमण्‍डलीकरण के इस उदार वातावरण में ‍अनुवाद का बाजार गर्म है। इससे भी अधि‍क नई बात यह है कि‍ अनुवाद के बाजार के इस वर्द्धि‍ष्‍णु ग्राफ को देखकर हमारे स्‍वदेशी बन्‍धु बड़े उल्‍लसि‍त हैं। इस बाजार में वे अपने लि‍ए बड़ी सम्‍भावनाओं की जगह ढूँढने में लि‍प्‍त हैं क्‍योंकि‍ हमारे देश का शि‍क्षि‍त समाज अनुवाद को लेकर बहुत बड़े भ्रम में है। उन्‍हें लगता है कि दो भाषाओं का सामान्‍य ज्ञान रखने वाला हर व्‍यक्‍ति‍ अनुवाद कर सकता है। भ्रम यह भी है कि‍ स्रोत भाषा एवं लक्ष्‍य भाषा का ज्ञान कम भी हो, तो क्‍या फर्क पड़ता है? डि‍क्‍शनरी तो है न! और उससे भी बड़ा सहायक, गूगल ट्रान्‍सलेट वेबसाइट तो है ही!…भाषा और अनुवाद के बारे में ऐसी अवहेलनापूर्ण धारणा शायद ही दुनि‍या के कि‍सी कोने में हो! देश भर के कई सेक्‍टरों में अबूझ अनूदि‍त पाठ की अराजकता अकारण ही नहीं है। अनुवाद के आँगन में कूद पड़े ऐसे वि‍द्वानों को कैसे समझाया जाए कि‍ दो भाषाओं में वार्तालाप की शक्‍ति‍ भर जुटा लेने से अनुवाद की क्षमता नहीं आ जाती? उन्‍हें यह समझना चाहि‍ए कि‍ अनुवाद हेतु न केवल दोनों भाषाओं की संस्‍कृति‍, प्रकृति‍, प्रयुक्‍ति‍, पद्धति‍…का ज्ञान आवश्‍यक है; बल्‍कि‍ पाठ के वि‍षय, लक्षि‍त पाठक समूह के भाषा-बोध और उनके जीवन में अनूदि‍त पाठ की प्रयोजनीयता भी उतने ही महत्त्‍वपूर्ण हैं। धनार्जन की लि‍प्‍सा से अलग हटकर तनि‍क अपने पूर्वजों की नि‍ष्‍ठा को याद करते तो उन्‍हें सब स्‍पष्‍ट हो जाता। अनुवाद के आवि‍ष्‍कार-काल से लेकर बीसवीं शताब्‍दी के अन्‍ति‍म चरण तक के भारतीय अनुवाद चि‍न्‍तकों एवं उद्यमि‍यों के सारे प्रयास मानवीय, राष्‍ट्रीय एवं ज्ञान के प्रचार-प्रसार की धारणा से प्रेरि‍त होते थे। अनुवाद तब तक कमाई का साधन नहीं बना था। ज्ञानाकुल समाज के हि‍त में लोग राष्‍ट्रवादी भावना से अनुवाद करते थे; मान्‍यता, पुरस्‍कार मि‍ल गया तो वाह-वाह, वर्ना सामाजि‍क प्रति‍ष्‍ठा को कौन रोक लेगा! कि‍न्‍तु व्‍यापारि‍कता के प्रवेश ने इनकी लुटि‍या डुबो दी।

कुछ बरस पीछे चलकर सरकारी प्रयासों का जायजा लें तो दि‍खेगा कि भारतीय भाषाओं में अनूदित सामग्री जुटाने हेतु ‍भूतपूर्व प्रधानमन्‍त्री पी.वी. नरसिंह राव के कार्य-काल में ‘विशेष कोष’ की स्थापना हुई थी। परवर्ती काल में इस दि‍शा में और भी महत्त्‍वपूर्ण काम हुआ। जून 13, 2005 को एक उच्च-स्तरीय सलाहकार संस्था ‘राष्ट्रीय ज्ञान आयोग’ का गठन हुआ। भारत के प्रधानमन्त्री को ज्ञान-व्यवस्था-संरक्षण के क्षेत्र में सलाह देने हेतु इसकी सि‍फारि‍शों की मुख्य चिन्ता का विषय था कि‍ इक्‍कीसवीं सदी की आधुनिकता की वैश्‍वि‍क दौड़ का मुकाबला ज्ञान-सम्‍पन्‍नता से ही सम्‍भव है; क्‍योंकि‍ अब आर्थिक गतिविधियों का प्रमुख संसाधन ज्ञान है। स्‍पष्‍टत: भारत को अपनी समृद्ध वि‍रासत, राष्‍ट्रीय नि‍जता और वि‍लक्षण ज्ञान-परम्‍परा की ओर अनुरागपूर्वक सावधान होना था। संघ लोक सेवा आयोग के सन् 2007–08 की वार्षिक रिपोर्ट का नतीजा नि‍कला कि‍ मानविकी एवं सामाजि‍क वि‍ज्ञान विषयों की विश्वविद्यालय स्तर की पढ़ाई में 80-85 प्रतिशत शि‍क्षार्थी भारतीय भाषाओं में ही सहज रहते हैं, उसमें भी प्रमुखता हिन्दी की रहती है। स्‍पष्‍टत: भारतीय ज्ञान एवं शोध को प्रोन्‍नत करना अनि‍वार्य था और इस हेतु आने वाले समय में अनुवाद की भूमि‍का सुनि‍श्‍चि‍त थी। मातृभाषा के माध्‍यम से प्रारम्‍भि‍क शि‍क्षा को बढ़ावा देने हेतु पाठ्यक्रम की पुस्‍तकों का सभी मातृभाषाओं में अनुवाद करवाने की दि‍शा में पहल हुई; वि‍भि‍न्‍न वि‍षयों की कई दर्जन पुस्‍तकों का अनुवाद हेतु चयन हुआ; राष्ट्रीय अनुवाद मिशन का गठन हुआ; और भारतीय भाषा संस्‍थान, मैसूर को इसकी जि‍म्‍मेदारी दी गई। ऐसी बात की सूचना फैलते ही अनुवादकों की सूची में शामि‍ल होने के लि‍ए आखेटक लोग छान-पगहा तोड़ने लगे। वि‍चार हो कि वहाँ के प्रभारी‍ अनुवाद हेतु आवण्‍टि‍त बजट पर आक्रामक नजर गड़ाए इन उद्यमि‍यों से अनुवाद की इज्‍जत कैसे बचाएँ? जोर-जबर्दस्ती से कतार में आ गए अनुवादकों से पाठ्यक्रम की बोधगम्‍यता, अनुवाद एवं भाषा की सहजता की रक्षा कैसे करें?

तनि‍क भारतीय पुस्तक बाजार की ओर रुख करें तो साफ दि‍खेगा कि‍ इस समय भारत में लगभग उन्‍नीस हजार पुस्‍तक प्रकाशक हैं; जि‍नमें आई.एस.बी.एन. का इस्तेमाल करीब साढ़े बारह हजार प्रकाशक करते हैं। संशोधित संस्करणों के अलावा यहाँ प्रति‍ वर्ष अनुमानत: नब्‍बे हजार के करीब पुस्‍तकें छपती हैं, इनमें आधे से अधि‍क हि‍न्‍दी और अंग्रेजी की होती हैं; शेष अन्य भारतीय भाषाओं की। इस संख्‍या का एक बड़ा हि‍स्‍सा अनूदि‍त पुस्‍तकों का होता है। ये पुस्‍तकें भारतीय भाषाओं के पारस्‍परि‍क अनुवाद से लेकर वि‍देशी भाषाओं से भारतीय भाषाओं में अनुवाद तक की होती हैं। ज्ञानाकुल पाठक समुदाय के कारण इन अनूदि‍त पुस्‍तकों का व्‍यापार भी अच्‍छा-खासा होता है। अंग्रेजी भाषा की किताबों के प्रकाशन के क्षेत्र में भारत की गि‍नती दुनि‍या में तीसरे स्‍थान पर होती है। पहले दो देश हैं–अमेरि‍का और इंग्‍लैंड। कि‍न्‍तु वि‍डम्‍बना है कि‍ भारत में पनपी ‘अनुवाद एजेन्‍सी’ और ‘हम भी अनुवाद कर कमा सकते हैं’ की संस्‍कृति‍ ने इस कर्म की धज्‍जि‍याँ उड़ा दी हैं। न जाने ऐसा करते हुए भारतीय शि‍क्षि‍तों का वि‍वेक कहाँ गायब हो जाता है!

असल में भारत में अनुवाद-कर्म से जुड़े लोगों के साथ एक बड़ी वि‍डम्‍बना है; इनके लि‍ए समुचि‍त मानदेय की कोई मानक व्‍यवस्‍था नहीं है। मोल-भाव से सारी बातें तय होती हैं। यह सौदा पूरी तरह मुवक्‍कि‍ल की मजबूरी और अनुवादक के कौशल पर नि‍र्भर करता है। अनुवादक जि‍तना अधि‍क ऐंठ ले, या मुवक्‍कि‍ल जि‍‍तने कम में पटा ले। अधि‍कांश सरकारी संस्‍थाएँ आज भी पचास पैसे प्रति‍ शब्‍द से अधि‍क अनुवाद-शुल्‍क नहीं देतीं; प्राइवेट संस्‍थाएँ उन्‍हीं का अनुकरण करती हैं। इस दर पर एक श्रेष्‍ठ अनुवादक का दैनि‍क भत्ता चार सौ से अधि‍क नहीं बनता। और यह काम भी नि‍रन्‍तरता में नहीं मि‍लता; लि‍हाजा काम पाने के लि‍ए अनुवादक को कि‍सी न कि‍सी बिचौलिये की तलाश रहती है। ये बिचौलिये अनुवादकों का भरपूर शोषण करते हैं, पर बि‍चौलि‍ये से अनुवादक कटे तो उन्‍हें काम लाकर कौन दे? इस वि‍चि‍त्र परि‍स्‍थि‍ति‍ में भारतीय सांगठनि‍क क्षेत्र के नि‍यन्‍ता तनि‍क सोचें कि जि‍स अनुवादक को वे एक हमाल की मजदूरी भी नहीं मुहैया कराते, उनसे कैसे अनुवाद की अपेक्षा करेंगे; भारतीय अनुवाद को कौन-सी दि‍शा दि‍खाएँगे और ऐसे अनुवादकर्मि‍यों के सहारे राष्‍ट्रीय ज्ञान-गौरव की वि‍रासत की रक्षा कैसे कर पाएँगे।‍

भूमण्‍डलीकृत बाजार के वि‍स्‍तार से अब मानवीय उद्यम का हर आयास ‘इवेंट’ हो गया है। जीवन-यापन में बदस्‍तूर ‘इवेंट मैनेजमेंट’ का नया दौर आ गया है। शादी करवानी है, श्राद्ध करवाना है, पार्टी करवानी है, बच्‍चे को ट्यूशन पढ़वाना है, अनुवाद करवाना है…हर काम के लि‍ए एजेन्‍सी है। कि‍न्‍तु अनुवाद के क्षेत्र में एजेन्‍सी चला रहे व्‍यक्‍ति‍यों को तनि‍क बुद्धि‍-वि‍वेक और नि‍ष्‍ठा से काम लेना चाहि‍ए। ध्‍यान रखना चाहि‍ए कि‍ अनुवाद-कर्म व्‍यापार नहीं, एक मि‍शन है। अनुवाद हेतु दी जाने वाली राशि‍ मेहनताना या मूल्‍य नहीं, मानदेय कहलाती है; ज्ञान के वि‍कास में नि‍ष्‍ठा से लगे कि‍सी उद्यमी के सम्‍मान में दी जाने वाली मानद राशि‍। संस्‍थाओं-संगठनों का भी दायि‍त्‍व बनता है कि‍ वे एजेन्‍सि‍यों को न्‍यूनतम भुगतान पर अनुवादक तलाशने के लि‍ए मजबूर न करें। फि‍र अनुवाद के अखाड़े में कूदने से पहले अनुवादकों को भी आत्‍म-मूल्‍यांकन करना चाहि‍ए; इस क्षेत्र में आने की इच्‍छा ही है, तो कौशल जुटाएँ। गूगल ट्रान्‍सलेट अथवा मशीनी अनुवाद का बेशक सहयोग लें, कि‍न्‍तु अनुवाद को ‘मशीनी’ न बनाएँ। श्रेष्‍ठ अनुवादक को वांछि‍त पारि‍तोषि‍क देने हेतु भूमण्‍डलीकृत बाजार तथा उनकी भाषा की सराहना करने हेतु वि‍शाल उपभोक्‍ता समाज तैयार बैठा है। सरकारी नौकरी के अलावा जनसंचार, पर्यटन, व्‍यापार, फि‍ल्‍म, प्रकाशन…हर क्षेत्र में अनुवाद की तूती बजती है। सभी देशी-वि‍देशी फि‍ल्‍मकार भारतीय भाषाओं में अपनी फि‍ल्‍म की डबिंग करवाना चाहते हैं; वि‍भि‍न्‍न ज्ञान-शाखाओं में बड़े-बड़े वि‍चारकों की पुस्‍तकें प्रकाशक छापना चाह रहे हैं; सभी उद्योगपति‍ अपने उत्पाद का वि‍ज्ञापन सभी भाषाओं में करवाना चाह रहे हैं…इन सभी कार्यों की अपेक्षि‍त योग्‍यता के बि‍ना जो इस क्षेत्र में हाथ डालते हैं, वे सचमुच अपने देश के उपभोक्‍ता समाज के साथ गद्दारी करते हैं।

संसदीय कार्यवाही के निर्वचन हेतु चयनि‍त इंटरप्रेटर का तो चयन ही इतना ठोक-ठठाकर होता है कि‍ वहाँ के अनुवाद में कि‍सी दुवि‍धा की गुंजाइश सामान्‍यतया नहीं होती; कि‍न्‍तु प्रशासनि‍क महकमों के प्रपत्रों, वार्षि‍क रपटों के हि‍न्‍दी अनुवाद; या सामाजि‍क जागरूकता फैलाने वाले नारों के सर्वभाषि‍क अनुवाद का जैसा उदाहरण सामने आता है; मालूम ही नहीं चलता कि‍ अनुवाद हुआ कि‍स भाषा में है? इस समय सभी संस्‍थानों की वेबसाइट के हिंदी अनुवाद पर जोर दि‍या जा रहा है। सारी संस्‍थाएँ मुस्‍तैदी से सरकारी फरमान के अनुपालन में यह काम एजेन्‍सी को सौंपकर नि‍श्‍चि‍न्‍त हो रही हैं। धनलोलुप वि‍वेकहीन एजेन्‍सी को तो कमाना है, वह न्‍यूनतम कोटेशन के अनुवादक के आखेट में जुट जाती है। अब बेचारे अनुवादक क्‍या करें! उपलब्‍ध अवसर का लाभ वे क्‍यों न उठाएँ! गूगल देवता के चरण में पाठ को रखकर वे भी प्रसाद उठा लेते हैं और एजेन्‍सी को सौंप देते हैं। एजेन्‍सी उस पाठ का  मूल्‍यांकन जि‍स वि‍द्वान से करवाती है; उन्‍हें क्‍या पड़ी है कि‍ उसमें खोट नि‍कालें; एक बार खोट नि‍काल दें तो अगली बार उन्‍हें काम नहीं मि‍लेगा। वे उसे बेहतरीन अनुवाद का तमगा दे देते हैं। चारों घर इन्‍जोर (उजाला) हो गया। धज्‍जि‍याँ तो भाषा की उड़ीं, जि‍सका कोई खेवनहार नहीं! ऐसी रामभरोसे धारणा से संचालि‍त अनुवाद-उद्योग के गर्म बाजार पर संवेदना प्रकट करने के अलावा अन्‍य कुछ कि‍या नहीं जा सकता। व्‍यापारि‍क क्षेत्र में अनुवाद के पाँव जि‍स तरह पसरे हैं, उसमें मामला एक सीमा तक ठीक कहा जा सकता है, क्‍योंकि‍ वहाँ अनूदि‍त पाठ का सीधा सम्‍बन्‍ध भुगतान करने वालों के नि‍जी हि‍त से है। भाषा की बोधगम्‍यता का परीक्षण करके ही वे भुगतान करते हैं। कि‍न्‍तु जहाँ कहीं पाठ की सम्‍प्रेषणीयता का तत्‍काल परीक्षण नहीं होता, वहाँ अनुवाद की बड़ी दुर्गति‍ है।

(यह पोस्ट देवशंकर नवीन के ब्लॉग से साभार ली गई है)

देवशंकर नवीन ने अनुवाद चिंतक, अनुवादक और शिक्षक, तीनों भूमिकाओं में अनुवाद को समृद्ध किया है। उन्होंने 200 से अधिक लेखों और ‘अनुवाद अध्ययन का परिदृश्य’ जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक के ज़रिए अनुवाद के विभिन्न पहलुओं की गहरी पड़ताल की है। वे मैथिली और हिंदी के लेखक और आलोचक के साथ ‘राजकमल चौधरी रचनावली’ के संपादक के रूप में भी जाने जाते हैं। अभी वे जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भारतीय भाषा विभाग में प्रोफ़ेसर के पद पर कार्यरत हैं। आप उनसे deoshankarn@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।


In all three of his capacities as a translation theorist, translator, and teacher, Deoshankar Naveen has made significant contributions to translation. He has extensively examined various aspects of translation through more than 200 articles in newspapers and magazines and an important book titled “Anuvaad Adhyayan ka Paridrishya.” Apart from being a Hindi and Maithili writer and critic, he is also known for his role as the editor of “Rajkamal Chaudhary Rachnavali.” At present, he is a professor at the Center of Indian Languages at Jawaharlal Nehru University. He can be reached at deoshankarn@gmail.com.

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गुणवत्ता के नाम पर होने वाले शोषण से बचें https://translatorsofindia.com/exploitation-in-the-name-of-quality https://translatorsofindia.com/exploitation-in-the-name-of-quality#respond Sat, 19 Mar 2022 13:52:10 +0000 https://translatorsofindia.com/?p=335 आजकल अनुवाद कंपनियों द्वारा अनुवाद की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए भाषिक गुणवत्ता आश्वासन (Linguistic Quality Assurance) नाम की यांत्रिक प्रक्रिया का बहुत प्रयोग किया जा रहा है, जिसे संक्षेप में एलक्यूए भी कहते हैं। आप किसी गणितीय गणना की

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आजकल अनुवाद कंपनियों द्वारा अनुवाद की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए भाषिक गुणवत्ता आश्वासन (Linguistic Quality Assurance) नाम की यांत्रिक प्रक्रिया का बहुत प्रयोग किया जा रहा है, जिसे संक्षेप में एलक्यूए भी कहते हैं। आप किसी गणितीय गणना की यंत्र द्वारा जांच कर सकते हैं। विज्ञान के अनेक विषयों में सूत्रों की सटीकता की जांच भी यंत्रों द्वारा संभव है। लेकिन कुछ निश्चित एल्गोरिदम फ़ीड करके किसी कंप्यूटर प्रोग्राम द्वारा अनुवाद की गुणवत्ता की जांच सैद्धांतिक रूप से ही गलत है। विशेष रूप से हिंदी भाषा के लिए तो इनका कोई सार्थक उपयोग नहीं है।

एलक्यूए के लिए जिस टूल का उपयोग किया जाता है उसमें गुणवत्ता के ऐसे-ऐसे मानदंडों का समावेश किया जाता है कि किसी भी अनुवाद के उपरांत क्यूए रन करने पर आपको 500-600 क्यूए चेतावनियां मिलना आम बात है। इनमें 70-80 प्रतिशत चेतावनियां वर्तनी को लेकर होती हैं। कारण सीधा सा है, किसी भी टूल में सही वर्तनी वाले हिंदी शब्दों का कोई कोश नहीं भरा होता है। इसलिए हिंदी के हर शब्द की वर्तनी गलत ही बताई जाती है। इसी प्रकार यदि लिंग-भेद के कारण किसी अंग्रेजी वाक्य के हिंदी अनुवाद में एक बार पुल्लिंग क्रिया और दूसरी बार स्त्रीलिंग क्रिया का प्रयोग होता है तो क्यूए टूल द्वारा उसे असंगत अनुवाद करार दे दिया जाता है।

ये कुछ उदाहरण तो इस प्रक्रिया और प्रयुक्त टूल की निरर्थकता के संबंध में दिए गए हैं। लेकिन हम अनुवादकों के लिए कहीं बड़ा विषय है इस एलक्यूए प्रक्रिया द्वारा अनुवादकों का शोषण! जैसा कि सभी जानते हैं, अनुवाद की पारंपरिक प्रक्रिया में अनुवाद के बाद प्रूफरीडिंग का चरण आता है। प्रायः प्रूफरीडिंग की दर अनुवाद दर की आधी होती है। जैसे, यदि अनुवाद दर 2 रुपये प्रति शब्द है तो प्रूफरीडिंग की दर 1 रुपया प्रति शब्द होगी।

लेकिन अनुवाद कंपनियों ने इस एलक्यूए की प्रक्रिया को लाकर प्रूफरीडिंग चरण को समाप्त कर दिया है। जहां प्रूफरीडिंग में प्रति घंटा 500-600 शब्दों की प्रूफरीडिंग अपेक्षित हुआ करती थी, अब एलक्यूए में 1000 से लेकर 6000 शब्द प्रति घंटा का मानदंड अलग-अलग कंपनियों द्वारा तय किया गया है। औसतन 3000 शब्द प्रति घंटा भी मानें और अनुवादक की प्रति घंटा दर 500 रुपये है, तो उसे एलक्यूए के लिए प्रति शब्द 17 पैसे की दर से भुगतान किया जाएगा। इस आलेख के माध्यम से मेरा यही कहना है कि अनुवाद कंपनियों की घातक चालों में न फंसें। एक तो किसी भी भाषिक गुणवत्ता या संपादन या समीक्षा के लिए प्रति घंटा दर 1000 रुपये से कम न रखें दूसरे प्रति घंटा शब्द सीमा किसी भी स्थिति में 1000 शब्द प्रति घंटा से अधिक स्वीकार न करें।


लेखक : विनोद शर्मा

बीएसएनएल में सेवारत रहते हुए 1991 में अंग्रेजी में एमए किया, लगातार 1993 में हिंदी में एमए किया फिर 1995 में इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से अनुवाद में पीजी डिप्लोमा किया। 1995 से 1997 तक शौकिया अनुवाद कार्य किया। जुलाई 1997 से विधिवत पेशेवर अनुवादक के रूप में कार्य शुरू किया, लेकिन विकीपीडिया, रोजेटा फाउंडेशन, ट्रांलेटर्स विदाउट बॉर्डर्स आदि के लिए स्वैच्छिक अनुवाद भी चलता रहा। 2005 से कैट टूल्स से परिचय हुआ। सबसे पहले एसडीएलएक्स, फिर वर्डफास्ट पर काम करना शुरू किया। उसके बाद तो अनुवाद यात्रा चलती रही। नए-नए टूल्स शामिल होते रहे, नए-नए विषयों और क्षेत्रों में, नए-नए फाइल प्रकारों से होते हुए ये सफर जो चला तो चलता ही रहा। 2010 से 2020 तक दबिगवर्ड कंपनी के लिए गूगल रिव्यूअर के रूप में नियमित कार्य किया।

An Engineer with a passion for languages went on to complete Masters both in English and Hindi in 1991 and 1993 respectively. He did not stop here, completed a PG Diploma in Translation from IGNOU in 1995. Started with amateur translation for Wikipedia, Rosseta Foundation and Translators without Borders. Turned professional in 1997 and never stopped. Started using CAT tools in 2005 with SDLX, Wordfast, Idiom and since then no looking back. Worked as Google Reviewer through thebigword from 2010 to 2020. Specialization in Medical, Legal and Technical fields. Working mostly with foreign companies only.

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