अनुवाद : विविध प्रसंग

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अनुवाद सदा से मनुष्यों के बीच संप्रेषण का आधार रहा है।

भारत जैसे बहुभाषी देश में औसत रूप से चैतन्य लोग एकाधिक भाषाओं में सामान्य संवाद करते रहे हैं। यहां घरों में एकाधिक भाषाओं का उपयोग भी व्यापक रहा है और भाषाओं का अलिखित वरीयताक्रम भी। पुराने संस्कृत नाटकों में प्रमुख चरित्रों और स्त्रियों और निम्नवर्गीय चरित्रों का अलग-अलग भाषाओं में बोलना और भक्तिकाल में सधुक्कड़ी की व्यापक स्वीकार्यता, भाषाविद् गणेश देवी के शब्दों में, भारत की ‘अनुवाद चेतना’ के प्रमाण हैं। भारत में भाषांतर, तर्जुमा, रूपांतर, विवर्तन, लिप्यंतरण आदि अनुवाद के अनेक रूपों का प्रचलन और भारतीय भाषाओं का साझा सूत्र संस्कृत अनुवाद को ऐसा सहज कर्म बना देते हैं कि कभी-कभी हम जान भी नहीं पाते कि कोई रचना या अवधारणा अनुवाद का परिणाम है।

हूण-शक-यवन-अरब-फारसी-यूरोपियन अपने साथ नयी भाषाएं और जीवनदृष्टियां लाए जिन्होंने भारत में पहले से प्रचलित विचारों को प्रभावित किया और औपचारिक अनुवाद की आवश्यकता भी तैयार की। अनुवाद की दृष्टि से दो महत्वपूर्ण काल- मुगलकाल और ब्रिटिशकाल थे जब भारतीय साहित्य के बड़े पैमाने पर अनुवाद हुए, विदेशी भाषाओं से भी भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुए। फिलहाल भारत सरकार ने भी एक महत्वाकांक्षी अनुवाद परियोजना की घोषणा की है जो अगर सफल हुई तो इक्कीसवीं सदी भारत में अनुवाद का तीसरा महत्वपूर्ण काल सिद्ध होगी।

बाइबल के अनुवादों ने भाषा के मानकीकरण की आवश्यकता खड़ी की तो भारतीय भाषाओं के व्याकरण और कई मामलों में, खासतौर पर आदिवासी भाषाओं की, लिपियां भी नियत हुईं। यह काम यूरोपियन विद्वानों ने किया। भारत में भाषा विचार की संवाहक मानी जाती थी और संदर्भ के अनुसार नये शब्द गढ़ना और शब्दों के अलग-अलग अर्थ लगाना आम प्रचलन था। इस तरह अनुवाद एक व्यक्तिनिष्ठ क्रिया थी जो अनुवादक के व्यक्तित्व की परिचायक भी थी। मोटे तौर पर भारत में, एक अच्छा अनुवाद मूल पाठ के रस और ध्वनि को संप्रेषित करता था (दरअसल यह भी अनिवार्य नहीं था। अनुवादक अक्सर ही पुनर्पाठ भी करते थे और इस प्रक्रिया में मूल पाठ से काफी विचलन भी हो जाता था। भारत में प्रचलित अनेक रामायणें और महाभारत इसके उदाहरण हैं। मूल पाठ की दूसरी भाषा में जस की तस प्रस्तुति पश्चिम से आई अवधारणा है)। इसलिए अनुवादक का मूल पाठ और अनूदित पाठ की भाषाओं के अलावा उन से जुड़ी संस्कृतियों से भी सुपरिचित होना जरूरी बना। यहां एक समस्या सामने आती हैः अलग-अलग भाषा-संस्कृति से जुड़े पाठकों के लिए अनूदित पाठ की ग्रहणीयता। इसके प्रमुख उदाहरण श्री अरविंद द्वारा संस्कृत से अंग्रेजी में किए गए और टैगोर द्वारा अपनी ही बांगला कविताओं के अनुवाद हैं जिन्हें भारतीय पाठकों ने दुरूह और मूल पाठ से अलग पाया।

एक और समस्या (जो कम से कम अंग्रेजी में अनुवाद के मामले में दिखती है) है अनुवादक का अक्सर भारतीय भाषा की रचना के साथ अतिरेकी किस्म की छूटें लेना। यह भाषाओं के सत्ता समीकरण के चलते होता है। भाषाओं के सत्ता समीकरण के चलते ही भारतीय भाषाओं में एक भाषा से दूसरी भाषा में अनुवाद बिना अंग्रेजी की मध्यस्थता के कठिन होता जा रहा है।

अनुवाद को मूल लेखन से हीन मानने की प्रवृत्ति कोई नयी बात नहीं है।

इस के पीछे वह उपनिवेशवादी मानसिकता काम करती है जो मानती है कि हमारी अपनी संस्कृति, ज्ञान और भाषा से श्रेष्ठ कुछ कहीं नहीं है, जो भी उस से इतर है वह बर्बर या हीन है, उस से न सीखने की जरूरत है और न उसे सिखाने की। और इसलिए दूसरी भाषाओं की कृतियों का अपनी भाषा में अनुवाद करना हो या अपनी भाषा की कृतियों का दूसरी भाषाओं में, अनुवादकर्म को मौलिक लेखन से हीन माना गया। प्राचीन ग्रीक और रोमन इस विचार के पोषक थे।

लेकिन जब राजनीतिक वर्चस्व स्थापित करना हो तब अनुवाद ही वैतरणी पार करवाता है। अनुवाद संस्कृतियों और भाषाओं के बीच सेतु रचता है। जब मिस्त्र में रोमन साम्राज्य को स्थानीय यहूदी समाज (ईसा यहूदी ही थे) के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा और औपनिवेशिक शासकवर्ग और उपनिवेश के बीच कुछ सद्भाव तैयार करने की जरूरत पड़ी तो ईसा से ढाई सदी पहले, टॉलेमी ने यहूदी धर्मग्रंथ का हिब्रू से ग्रीक में अनुवाद करवाया जिसे ईसाई परंपरा में ओल्ड टैस्टामेंट कहा जाता है।

सीरिया के प्राचीन नगर एब्ला में मिली 2500 ईस्वीपूर्व और 2250 ईस्वीपूर्व के बीच की 1800 मिट्टी की पट्टिकाओं पर सुमेरियन और स्थानीय एब्ला भाषा में अंकित दस्तावेज इस नगर के समृद्ध इतिहास की गवाह हैं।

बहुभाषी अंकनों का सब से प्रसिद्ध उदाहरण तीन लिपियों, प्राचीन मिस्त्री चित्रलिपि, मिस्त्री लिपि और प्राचीन ग्रीक में जारी 196 ईस्वीपूर्व का एक आदेश रोजेट्टा स्टोन है जो अपने आप में किंवदंती बन चुका है। यह लिपि के विकास का एक महत्वपूर्ण दस्तावेज भी है।

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अनुवाद के लिखित इतिहास की दृष्टि से मिस्त्र बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ईसा से 3000 बरस पहले स्थापित हुआ यह राज्य अनेक भाषाई और जातीय समूहों का संगठन था। बाद में यह लंबे समय तक फारसियों और फिर रोमनों के अधीन रहा। जाहिर है कि राजकाज दुभाषियों और अनुवाद के बिना संभव नहीं हो सकता था, दरबार, मंदिर और बंदरगाह अनुवाद के महत्वपूर्ण ग्राहक थे। ईसा से पांच सदी पहले मिस्त्र आए ग्रीक इतिहासकार हेरोडोटस ने वहां के दुभाषियों और अनुवादकों को एक सम्मानित जाति बताया। ईसा के जन्म से कम से कम एक हजार बरस पहले ‘प्रमुख अनुवादक’ का पद मिस्त्र में विद्यमान था। बेबीलोन के प्रशासक के फराओ को लिखे एक पत्र में अनुवादकों के राजनयिक दल में शामिल होने का उल्लेख है। असीरियनों, हेट्टों और बेबिलोनवासियों से मिस्त्री व्यापार फला-फूला तो विदेशी भाषाओं में किताबत करने वालों के प्रशिक्षण के लिए बाकायदा व्यवस्था बनी। सिकंदर की मिस्त्र पर विजय के बाद ग्रीक अनुवाद की जरूरत बढ़ी। बहुत से राज्यादेश दो या अधिक भाषाओं में जारी किए जाते थे।

अनुवाद का व्यावहारिक अर्थ है किसी विचार को दूसरी भाषा में व्यक्त करना।

यह कोई बहुत सूत्रबद्ध गतिविधि नहीं है। इसका मोटा-मोटा संचालक निर्देश बस यही है कि अनूदित पाठ में मूल पाठ का अर्थ, भाव और सौंदर्य (बिलकुल इसी वरीयताक्रम में) बने रहें। लेकिन दिक्कत यह है कि हर भाषा में कुछ शब्द और अवधारणाएं ऐसी होती हैं कि उन्हें दूसरी भाषा में अनूदित करना टेढ़ी खीर और यहां तक कि असंभव माना जाता है (उदाहरण के लिए, हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा के ऐसे वाक्यांशों का अंग्रेजी में अनुवाद करते हुए अनुवादक अक्सर पनाह मांग जाते हैं जिनमें सामाजिक संबंधों, खासतौर पर जीजा-देवर, भाभी-साली का उल्लेख हो!) ऐसी स्थिति में अनुवादक अक्सर अपने विवेक से काम लेते हुए उपयोगी पाठ तैयार कर लेते हैं।

लेकिन, अनुवाद को दोयम दर्जे का काम घोषित करते हुए भी आलोचक उसकी कमियों को इंगित करने में काफी मेहनत करते हैं। बाइबल की कुछ महत्वपूर्ण अवधारणाओं पर बहस का आधार आरामेइक और हिब्रू शब्दों से लैटिन में हुए ‘गलत’ अनुवाद हैं।

बहसें विवादों में बदलती हैं तो नये पंथ बनते हैं….. कैथोलिक और प्रोटैस्टैंट मतों के विभाजन ने ईसाई यूरोप पर चर्च की निर्विवाद जकड़ को तोड़ने के साथ ही नए सत्ता-समीकरण भी गढ़े।

हमारी दुनिया को एक सूत्र में पिरोता अनुवाद

चौदहवीं सदी में जब इतालवी लेखक और पुनर्जागरण युग के महत्वपूर्ण मानवतावादी ज्योवानी बोकात्चियो ने मौखिक परंपरा और लैटिन और फ्रेंच स्रोतों से पाई कुछ कहानियों को अपने ढंग से ‘डेकामेरॉन’ नाम की किताब के रूप में प्रस्तुत किया तो यह जनसामान्य के दैनंदिन ज्ञान और नैतिकता पर चर्च के एकाधिकार के मुखर प्रतिरोध का सूत्रपात करने वाली घटना बनी (उससे पहले तक लोकसाहित्य किताबों के रूप में नहीं छपता था। यूरोप में ग्रीक और लैटिन, हमारे देश में संस्कृत की तरह, शास्त्रीय ज्ञान की भाषाएं मानी जाती थीं)। जल्दी ही बोकात्चियो की कृति के अंग्रेजी सहित यूरोप की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद और रूपांतरण प्रकाशित हुए, यहां तक कि लोक ने उसे एक महत्वपूर्ण शैक्षिक उपकरण का दर्जा तक दिया।

बोकात्चियो को ये कहानियां भले ही यूरोप की परंपरा से मिलीं लेकिन इन का उत्स फारस, अरब और भारत जैसे देश थे जहां ये सदियों से मौखिक और लिखित परंपराओं में प्रचलित थीं। भारत से फारस और अरब होते हुए यूरोप पहुंचे बनजारे पंचतंत्र, कथासरित्सागर, जातक कथाओं का समृद्ध कोश साथ ले गए थे। वे जिस राह से गुजरे कहानियों के बीज बोते चले जिन्होंने स्थानीय बोली-मिट्टी में जड़ें पकड़ लीं। अरब, ग्रीक और भारतीय व्यापारी समुदायों के मेलजोल ने भी साहित्य और ज्ञान के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। लगभग पूरे संसार में उपयोग हो रहे आधुनिक रोमन अंक, गणित, रेखागणित और खगोलशास्त्र के महत्वपूर्ण सूत्र और ज्योतिष की कुछ अवधारणाएं इस आदान-प्रदान के साक्ष्य हैं।

साहित्य और ज्ञान के प्रसार में, अपरिहार्य लेकिन अनदेखी सी कर दी गई, बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अनुवाद की रही। उदाहरण के लिए, पंचतंत्र की जिन कहानियों के कथासूत्रों का बोकात्चियो ने उपयोग किया वे उन तक पुराने फारसी, अरबी, हिब्रू अनुवादों की एक प्राचीन परंपरा द्वारा पहुंचे थे। ईसा की पहली सदी में लिखी गई यहूदी धर्मग्रंथ तालमुद की टीकाओं में पंचतंत्र के कथासूत्रों के उपयोग का विस्तृत दस्तावेजीकरण उपलब्ध है। पशु-पक्षियों के माध्यम से नीति का ज्ञान देने वाली ईसप की कहानियां जातक कथाओं और पंचतंत्र से उठाई गई मानी जाती रही हैं। आधुनिक अध्येताओं ने पाया कि ईसप की कहानियों के सूत्र प्राचीन सुमेर और अक्काद साहित्य में ईसा से तीन हजार बरस पहले मौजूद थे। इस खोज ने एक नये प्रश्न को जन्म दिया है- ये कहानियां भारत से ग्रीस पहुंचीं या ग्रीस से भारत?

बहरहाल, अपनी लंबी यात्राओं और अपसरण में इन कहानियों में जो नहीं बदला वह है इनका नीति का बोध करवाने वाला चरित्र और प्रकार्य। समाजशास्त्री फूको का कहना है कि शिक्षा निरपेक्ष गतिविधि बिलकुल नहीं है, कोई भी समाज व्यवस्था उन्हीं मूल्यों को समर्थन देती है जो उसकी राजनीतिक-सामाजिक आकांक्षाओं की पूर्ति में साधन बनते हैं। अनुवाद के साथ भी कुछ ऐसा ही है। सत्ता केवल अपने एजेंडा को आगे बढ़ाने में सहायक अनुवाद और ज्ञान को प्रश्रय देती है। पंचतंत्र की कथाएं स्थिति के अनुरूप चुनाव को आदर्श विकल्प के रूप में प्रस्तुत करती हैं। वे उस नैतिकता की पक्षधर नहीं हैं जिसकी आकांक्षा रखना आज हम एक आदर्श के रूप में सीखते हैं, वे तो खुद को केंद्र में रखते हुए हर हाल में खुद को बचा ले जाने की सीख देती हैं। ये कहानियां राजपुत्रों को सफल-समर्थ शासक बनने को प्रेरित करने के लिए चुनी गई थीं। इनकी चरम परिणति राजपुरुषों के आदर्श व्यवहार और आचरण के बारे में राजनीतिक विचारक मैकियावेली के लेखन में होती दिखती है।

16वीं सदी में पोप पायस छठे ने लैटिन में ईसप की कहानियों को कविता के रूप में प्रस्तुत करने वाला एक संग्रह तैयार करवाया ताकि ‘बच्चे एक ही किताब से शुद्ध भाषा और नीति सीख लें।’ 17वीं सदी में फ्रांस के राजा लुइ 16वें ने अपने 6 बरस के बेटे को शिक्षित करने के लिए 38 कहानियों की शिक्षाओं को निरूपित करने वाले मूर्तिशिल्प बनवाए। और तो और, 1730 में बच्चों के लिए, इन नीतिकथाओं के ला फांतें के किए फ्रेंच रूपांतरण पर आधारित, लोकप्रिय धुनों से सजी संगीत नाटिकाएं भी प्रकाशित हुईं जिनका उद्देश्य और लक्ष्य था ‘बच्चों को उनकी आयु के अनुरूप शिक्षा देना और उन्हें उन भोंडे गीतों से विमुख करना…जो उनकी निश्पापता को भ्रष्ट करते हैं।’ यूरोपियन उपनिवेशवादियों का अपने शैक्षिक उद्यमों के माध्यम से एशिया और अफ्रीका में ईसप की कहानियों को स्थानीय भाषाओं में उपलब्ध करवाना ऐतिहासिक विडंबना थी क्योंकि इन के कथासूत्र इन समाजों के लोकसाहित्य में पहले ही उपस्थित थे।

भाषाविदों-यात्रियों-व्यापारियों-मिशनरियों के उद्यम से आज ईसप की कहानियों के रूप में जातक कथाओं और पंचतंत्र के अनुवाद-रूपांतरण भारतीय, पश्चिमी और मध्य एशियाई भाषाओं के अलावा चीनी, जापानी और मेक्सिको की लोकभाषा नाउत्ल में भी उपलब्ध हैं।

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धर्म के चेहरे को बदलने और उसे अधिक लोकोन्मुख और सर्वसुलभ बनाने में अनुवाद की भूमिका के दो बड़े उदाहरण हैं रामायण और बाइबल के 16वीं सदी में आए संस्करण। इन ग्रंथों ने अपनी भाषा और युग को नए शब्द, नए मुहावरे और नई अवधारणाएं तो दी हीं, सामाजिक और राजनीतिक बदलाव की प्रक्रिया को भी प्रभावित किया। आज अगर धर्म पर सार्वजनिक बहस संभव है तो उसकी पीठिका इन्हीं अनुवादों ने तैयार की है।

बाइबल के शुरुआती जर्मन और अंग्रेजी अनुवाद करने वाले मार्टिन लूथर और विलियम टिंडेल हिब्रू-ग्रीक और लैटिन जैसी शास्त्रीय भाषाओं के अधिकारी विद्वान और धर्मशास्त्री थे (बाइबल के उनके अनुवाद इस ग्रंथ के हिब्रू-ग्रीक पाठों पर आधारित थे) तो रामायण का पुनर्पाठ करने वाले तुलसीदास संस्कृत के अधिकारी विद्वान और धर्मशास्त्री थे। लेकिन अपने युग और समाज के लिए, अभी तक अभिजातवर्ग तक सीमित रहे और ज्ञान के समानार्थक बन चुके शास्त्रीय ग्रंथों को लोक के लिए सुलभ बनाने के लिए तीनों ने ही जन की भाषा को आधार बनाया। धर्मध्वजवाहकों ने इन अनुवादों को धर्मविरुद्ध घोषित किया क्योंकि वे धर्मग्रंथों के एक वर्ग विशेष द्वारा ही लिखे-पढ़े और व्याख्या किए जाने की परंपरा से जबर्दस्त विचलन थे।

इन तीनों अनुवादों ने अभिजातवर्ग का विशेषाधिकार बन चुके शास्त्रीय ज्ञान को जनसाधारण के लिए सुलभ बनाकर विशेषाधिकार और ज्ञान पर एकाधिकार को एक झटके में तोड़ दिया।

दरअसल इस आंदोलन की शुरुआत पहले ही जर्मन बोलियों में लैटिन स्तोत्रों के अनुवाद और भारतीय बोलियों में भक्ति और ज्ञान के पदों की रचना से हो चुकी थी। इनमें से बहुत सी रचनाओं में विचार के स्तर पर शास्त्रीय धर्मग्रंथों की अनुगूंज सुनाई देती है लेकिन सच यह भी है कि इनके रचनाकार, कम से कम भारत में, ज्यादातर परंपरागत शास्त्रीय ज्ञान से दूर रखे गए वर्गों से थे।

ये सभी रचनाएं पुरोहित वर्ग के अनुष्ठानों को मुक्ति का साधन बताने के विरुद्ध स्वर उठाते हुए मनुष्य के व्यक्तिगत कर्म को, मनुष्य के देवताओं को समर्पण के बरक्स मनुष्य के जीवमात्र के प्रति करुणाभाव को सर्वोच्च मान रही थीं जिससे पुरोहित की जरूरत और वैधता ही संदेह के दायरे में आ गई। जीवमात्र के प्रति करुणाभाव कोई नई अवधारणा नहीं थी। ईसाई संत फ्रांसिस और बुद्ध ने करुणा का उपदेश बहुत पहले दिया ही था लेकिन पुरोहितवर्ग ने उसे ईश्वर और ईसा का विशेष लक्षण बना दिया था।

यूरोप में बाइबल के अनुवादों को यूरोप की राजसत्ताओं पर रोमन कैथोलिक चर्च की कड़ी जकड़ को तोड़ने वाली घटना माना जाता है जिसने आखिर अरब में ईसाई और मुसलमान सेनाओं के बीच चलने वाले धर्मयुद्धों को लगभग खत्म कर दिया। भक्ति काव्य ने हिंदू धर्म के आधार, चतुर्वर्ण की अवधारणा पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत को रेखांकित किया और यह क्रम अब भी जारी है।

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अनुवाद जैसा निरापद, निरीह लगने वाला कर्म अपने साधक के लिए खतरनाक क्यों और कैसे बन जाता है?

जवाब हैः जब वह व्यवस्थित धर्म और राजनीति के निशाने पर आता है। 14वीं सदी में वल्गेट के नाम से जानी जाने वाली लैटिन बाइबल के पहले अंग्रेजी अनुवादक जॉन वायक्लिफ की चर्च से तनातनी उनके जीवनकाल में तो चलती ही रही, उनके मर जाने के बाद पोप मार्टिन पांचवें के आदेश पर उनके अवशेष कब्र से निकाल कर जलाए गए। विलियम टिंडेल को ईशनिंदक बता कर सूली चढ़ाया गया।

हमारे देश में, तुलसीदास जीवनभर वाराणसी के विद्वत्वर्ग के कोपभाजन बने रहे। मार्टिन लूथर के सिर पर इनाम था। दारा शिकोह के किए संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद औरंगजेब के लिए उसे धर्मद्रोही घोषित करने का कुछ स्वीकार्य सा लगता कारण बने।

16वीं सदी के पूर्वार्ध में चर्च की छद्म न्याय-गवेषण प्रक्रिया इंक्विजिशन पर प्रश्न उठाने वाले फ्रेंच मुद्रक, अनुवादक और लेखक एतीन दोल को ईशनिंदक और धर्मविरोधी घोषित करके उनकी छापी किताबों के साथ जिंदा जला दिया गया था। अब माना जाता है कि चर्च को उन्हें राह से हटाना जरूरी लगा क्योंकि वे धर्मग्रंथों को लैटिन के बजाय अपनी भाषा में पढ़ने की वकालत कर रहे थे।

1991 में सलमान रश्दी की सैटेनिक वर्सेज के जापानी अनुवादक हितोशी इगाराशी की हत्या इस कड़ी में सब से नया उदाहरण है। सैटेनिक वर्सेज के खिलाफ अयातुल्ला खुमैनी के फतवे के बाद हुई उनकी हत्या आज भी एक अनसुलझी गुत्थी है। कहा जाता है कि सैटेनिक वर्सेज के गड़े मुर्दे को फिर से न जिलाने के चक्कर में जापान की सरकार ने उनके बांगलादेशी हत्यारे के प्रत्यार्पण का प्रयास तक नहीं किया।

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लैटिन से अंग्रेजी में अनुवाद करने वाले कुछ शुरुआती अनुवादक अपने-अपने क्षेत्रों में बहुत नाम कमा चुके थे। राजा अल्फ्रेड (849-899) कुशल प्रशासक और सेनानायक होने के साथ ही शिक्षा और साक्षरता के संवर्धक भी थे। उन्होंने महत्वपूर्ण लैटिन ग्रंथों के अनुवाद करवाने के साथ ही खुद भी कुछ धार्मिक पाठों के अनुवाद किए। जेफ्री चॉसर (1343-1400) राजनयिक, दार्शनिक, खगोलशास्त्री और कवि के साथ ही अपने युग के महत्वपूर्ण अनुवादक भी थे। अंग्रेजी की पहली किताब ‘हिस्टरी ऑफ ट्रॉय’ के मुद्रक विलियम कैक्सटन (1415-1491) ने ही उसे फ्रेंच से अंग्रेजी में अनूदित भी किया था। उन्होंने कुल 25 किताबों का अनुवाद किया।

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भारत में राजा अल्फ्रेड का समकक्ष उदाहरण दारा शिकोह हैं। औरंगजेब के बड़े भाई दारा शिकोह अपने पिता शाहजहां के घोषित उत्तराधिकारी और इलाहाबाद और गुजरात के सूबेदार थे। आध्यात्मिक प्रवृत्ति वाले इस विद्वान राजपुरुष ने खुद उपनिषदों का संस्कृत से फारसी में अनुवाद किया था। कहा तो यह भी जाता है कि दारा ने तुलसीकृत रामचरितमानस का भी फारसी में अनुवाद किया था। कुछ बरस पहले जम्मू के एक व्यापारी को अपने घर में 1889 में रावलपिंडी के मुंशी चिरागदीन सिराजदीन प्रेस से छपी ‘रामायण नज्म खुशतर’ की प्रति मिली जो दारा का किया तुलसीकृत रामचरितमानस का फारसी अनुवाद है।

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रेनेसां को अनुवाद का युग कहा जाता है। यूरोप की प्रमुख भाषाओं में प्राचीन ग्रीक और लैटिन ग्रंथों के अनुवाद हुए तो भारत में भी मुगल शासकों ने संस्कृत ग्रंथों के फारसी में अनुवाद करवाए। अकबर ने बहुभाषी अधिकारी विद्वानों से वाल्मीकि रामायण, महाभारत, राजतरंगिणी, अथर्ववेद, द्वात्रिंशत पुत्तलिका आदि के फारसी अनुवाद करवाए। उन के नवरत्नों में से एक, अबुल फजल ने पंचतंत्र का अनुवाद किया तो अबुल फजल के भाई और अकबर के दरबारी फैजी ने नल-दमयंती आख्यान का।

अनुवाद की प्रक्रिया ने दुनिया को नयी लिपियां, भाषाएं और साहित्य दिए। चौथी सदी में बिशप अलफिला ने बाइबल का ग्रीक से गॉथिक भाषा में अनुवाद किया जो हमारी बहुत सी बोलियों की तरह, पूर्वी यूरोप के बड़े भूभाग में लिखी नहीं, केवल बोली जाती थी। तो हुआ यह कि बिशप अलफिला को गोथिक की लिपि तैयार करनी पड़ी। उन्हीं के लगभग समकालीन संत मेस्रॉप माशटॉट्स को भी इन्हीं कारणों से, यही कवायद आर्मीनियन भाषा के साथ करनी पड़ी।

भारत और अफ्रीका में बहुत सी आदिवासी भाषाओं की लिपियां भी ऐसे ही नियत हुईं। लिपियां बनीं तो इन भाषाओं के मौखिक साहित्य का दस्तावेजीकरण हुआ और इन में लिखे जा रहे साहित्य के दूसरे भाषाभाषियों द्वारा पढ़े जाने का क्रम बना जिससे भाषाओं के बीच संवादसेतु बने।

तोलेदो में अरबी ग्रंथों के लैटिन अनुवाद के दौरान बहुभाषी जनता और अतिथि विद्वानों के बीच संवाद से तैयार हुई खिचड़ी भाषा ने अंततः स्पेनिश की विशिष्ट कैस्टिलियन बोली का रूप लिया। कुछ ऐसी ही कहानी भारत में उर्दू और कैरिबियन द्वीपों की खास अंग्रेजी और दुनियाभर में अनेक क्रियोल बोलियों के विकास की है।

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अरबों के किए अनुवादों ने शास्त्रीय ग्रीक ज्ञान को बचाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 8वीं से 10वीं सदियों के बीच ईरान में जुंदिशपुर में एक बड़ी अनुवाद परियोजना चली जहां ग्रीकभाषी ईसाई, हिब्रूभाषी यहूदी और संस्कृतभाषी भारतीय विद्वान अरबी अनुवादकों के साथ मिलकर अपनी-अपनी भाषाओं के ग्रंथों के अरबी अनुवाद तैयार करते थे। 9वीं सदी में, इस्लामी स्वर्णयुग के चरम पर, खलीफा हारून अल-रशीद ने बगदाद में बैत अल-हिकमत की स्थापना की जहां कला, वास्तुशिल्प, खगोल, रसायनशास्त्र, चिकित्सा, संगीत, दर्शन, समाजशास्त्र और नीति के ग्रंथों के अरबी में अनुवाद हुए। हारून अल-रशीद के राज्य की सीमाएं चीन, अविभाजित भारत, तुर्की और भूमध्यसागर तक फैली थीं। शास्त्रीय ग्रीस, फारस, भारत के साथ वैचारिक संवाद ने अरब मुस्लिम जगत को हिंदू, जरथुस्त्री, बौद्ध और ईसाई दृष्टियों से परिचित करवाया। परिणामस्वरूप, ग्रीक दार्शनिकों और गणितज्ञों के साथ ही भारतीय चिकित्साशास्त्र, गणित, चीनी रसायनशास्त्र, फारस के प्रशासन और कृषि के ग्रंथों के अरबी में अनुवाद हुए।

11वीं सदी के अंतिम दौर में अरबों से स्पेन छीन लिए जाने पर तोलेदो ईसाई और इस्लामी जगतों को जोड़ने वाली कड़ी बना। स्पेन आठवीं सदी के दूसरे दशक से अरब उपनिवेश था और यहां अरबी, हिब्रू और लैटिन में पढ़ने-लिखने की समृद्ध परंपरा थी। इस्लामी स्वर्णयुग में अनूदित ग्रीक दार्शनिकों की रचनाओं के अलावा भारतीय, फारसी और चीनी दार्शनिकों और वैज्ञानिकों का लेखन भी अनुवाद के माध्यम से उपलब्ध होने के कारण यहां के अरबी पढ़ने-लिखने वालों को वह प्राचीन ज्ञान सहज उपलब्ध रहा जो यूरोप और बाकी जगहों पर उपलब्ध नहीं था। यही कारण था कि 10वीं सदी के अंत से यूरोप के अध्येता यहां आते रहे। 12वीं सदी के पूर्वार्ध में यहां के आर्कबिशप मुहम्मद रजा की पहल पर अरबी पांडुलिपियों से दर्शन, इतिहास, खगोल, संगीत, रसायनशास्त्र, चिकित्सा, गणित, रेखागणित, बीजगणित, ज्योतिष और काव्य के लैटिन में अनुवाद किए गए। पश्चिम के इतिहास में यह अनुवाद की सबसे बड़ी परियोजना थी।

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एक भारतीय पहल ने दिखाया है कि अनुवाद और प्रौद्यौगिकी का मेल खतरे में पड़ी भाषाओं के लिए संजीवनी सिद्ध हो सकता है। प्रथम बुक्स के खुले डिजिटल मंच स्टोरीवीवर पर लेखक, अनुवादक, संपादक और चित्रांकन विशेषज्ञ बच्चों के लिए उपयोगी सामग्री उपलब्ध करवाते हैं। इस सामग्री को कोई भी क्रिएटिव कॅामन लायसेंस के अंतर्गत डाउनलोड और इस्तेमाल कर सकता है।

हिमाचल प्रदेश में एक तिब्बती स्कूल में अंग्रेजी के अध्यापक तेनजिन धारग्याल बच्चों के लिए तिब्बती में पाठ्यसामग्री उलब्ध न होने से परेशान थे। फेसबुक पर स्टोरीवीवर के बारे में जानने पर उन्होंने फेसबुक पर अपने मित्रों-सहकर्मियों को इस स्रोत के बारे में बताया और सुझाव दिया कि इन में से कुछ कहानियों को तिब्बती में अनुवाद करके कक्षा में इस्तेमाल किया जाए, संभव हो तो एक रचनात्मक गतिविधि के रूप में छात्रों को भी अनुवाद के काम से जोड़ा जाए। धर्मशाला के तिब्बती स्कूल के मुख्याध्यापक तेनजिन दोर्जी ला और उनके छात्रों ने दो कहानियों का अनुवाद किया, धर्मशाला स्थित लायब्रेरी ऑफ टिबेटन वर्क्स एंड आर्काइव्स के डॅा चॅाक और तेनजिन धारग्याल के ही स्कूल में पढ़ा रहे जिग्मे वांग्डेन ने भी कुछ अनुवाद किए। तेनजिन धारग्याल और बहुत से दूसरे तिब्बती अध्यापक अपने छात्रों को ये कहानियाँ पढ़ने को दे रहे हैं।

वर्ल्ड कोंकणी सेंटर और कोंकणी भाषा मंडल भी महाराष्ट्र, गोवा, कर्नाटक, उत्तरी केरल, दादरा एवं नागर हवेली और विदेशों में फैले कोंकणी बच्चों के लिए बाल साहित्य उपलब्ध करवाने के लिए कहानियों के कोंकणी अनुवाद के अलावा मौलिक कहानियाँ भी स्टोरीवीवर पर अपलोड कर रहे हैं।

बिहार में बहुत सीमित क्षेत्र में बोली जाने वाली सूरजपुरी बोली कभी बंगाल से वहां आकर बसे मुसलमान समुदाय की भाषा है जिस पर बांग्ला का बहुत असर दिखता है। यह जल्द ही विगत इतिहास का हिस्सा बन जाती लेकिन कुछ प्रयासधर्मी लोग स्टोरीवीवर का उपयोग करके बच्चों के लिए सूरजपुरी को जिलाए रखने के उद्यम में लगे हैं।

सदियों पहले गुजरात के सौराष्ट्र से मदुरै, तमिलनाडु में आ बसा छोटा सा गुजराती समाज देवनागरी लिपि के माध्यम से सौराष्ट्री बोली को बचाए हुए था। आज 19 लाख से भी कम जनसंख्या वाला यह समाज कर्नाटक और आंध्र-तेलंगाना के अलावा देश-विदेश में फैला है। बच्चों के लिए सौराष्ट्री में साहित्य उपलब्ध न होना इस समाज के लिए एक बड़ी समस्या बन रहा था। पवित्रा सोलै जवाहर ने भी स्टोरीवीवर का उपयोग बच्चों के लिए किताबें लिखने और अनूदित करने के लिए किया। जल्द ही ये किताबें छपे रूप में भी बच्चों को मिलने लगेंगी।

कुर्दी भाषा बोलने-बरतने वाले लोग राजनीतिक और सैन्य परिस्थितियों के कारण दुनिया भर में बिखर रहे हैं। उनकी भाषा पर लुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। ईरान के करमानशाह जिले के भाषाविज्ञानी मुहम्मद रजा बहादुर लुप्त होने के कगार पर पहुंच चुकी दक्षिणी कुर्दी के माध्यम से साक्षरता बढ़ाने के लिए प्रयास कर रहे हैं।

मधु बी. जोशी कई दशकों से अनुवादक, कवयित्री, कहानीकार और स्तंभकार के रूप में अंग्रेज़ी और हिंदी के साहित्यिक जगत को समृद्ध करती आई हैं। वे तकनीकी अनुवाद को अपनी आय और साहित्यिक अनुवाद को रचनात्मक संतुष्टि का ज़रिया मानती हैं। उनके द्वारा अनूदित कृतियों में ‘बधिया स्त्री’ और ‘यह जीवन खेल में’ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। आप उनसे [email protected] पर संपर्क कर सकते हैं।

Over the last several decades, Madhu B. Joshi has enriched the Hindi and English literary worlds through her contributions as a translator, poet, story writer, and columnist. She views technical translation as a source of income that allows her to do literary translations of her choice. “Badhiya Stree” and “Yeh Jeevan Khel Mein” are among her most notable translations. She can be reached at [email protected].

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  1. Excellent piece Madam…
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